EN اردو
हामिद कहाँ कि दौड़ के जाऊँ ख़बर को मैं | शाही शायरी
hamid kahan ki dauD ke jaun KHabar ko main

ग़ज़ल

हामिद कहाँ कि दौड़ के जाऊँ ख़बर को मैं

इस्माइल मेरठी

;

हामिद कहाँ कि दौड़ के जाऊँ ख़बर को मैं
किस आरज़ू पे क़त्अ करूँ इस सफ़र को मैं

माना बुरी ख़बर है प तेरी ख़बर तो है
सब्र-ओ-क़रार नज़्र करूँ नामा-बर को मैं

ये संग-ओ-ख़िश्त आह दिलाते हैं तेरी याद
रोता हूँ देख देख के दीवार-ओ-दर को मैं

है तेरी शक्ल या तिरी आवाज़ का ख़याल
करता हूँ इल्तिफ़ात यकायक जिधर को मैं

अफ़्सोस हाए हाए की आती नहीं सदा
पूछे तो क्या बताऊँ तिरे चारा-गर को मैं

क्या हो गया इसे कि तुझे देखती नहीं
जी चाहता है आग लगा दूँ नज़र को मैं

अच्छा जो तू ने गोशा-ए-मरक़द किया पसंद
अब अपने हक़ में गोर बनाऊँगा घर को मैं

तेरे सर-ए-अज़ीज़ की बालिश हो ख़ाक से
बालीन-ए-ग़म से अब न उठाऊँगा सर को मैं

देखी न थी बहार अभी तेरे शबाब की
भूला न था अभी तिरे अहद-ए-सिग़र को मैं

तक़दीर ही ने हाए न की कुछ मुसाइदत
क्या रोऊँ अब दुआ-ओ-दवा के असर को मैं

हुक्म-ए-ख़ुदा यही था कि बैठा किया करूँ
मातम में तेरे अश्क-फ़िशाँ चश्म-ए-तर को मैं

जुज़ दर्द-ओ-दाग़ तू ने न छोड़ा निशान हैफ़
रखूँगा मेहमान इन्हें उम्र भर को मैं

कर ने दो आह-ओ-नाला कि आख़िर रहूँगा बैठ
तस्लीम कर के हुक्म-ए-क़ज़ा-ओ-क़दर को मैं

क्या फ़िक्र-ए-आब-ओ-नान कि ग़म कह रहा है अब
मौजूद हूँ ज़ियाफ़त-ए-दिल और जिगर को मैं

तुझ को जवार-ए-रहमत-ए-हक़ में जगह मिले
माँगा करूँगा अब ये दुआ हर सेहर को में

हब्स-ए-दवाम तो नहीं दुनिया कि मर रहूँ
काहे को घर ख़याल करूँ रहगुज़र को मैं

ख़ुद हम से भी ज़्यादा हो जो हम पे मेहरबाँ
वो जाम-ए-ज़हर दे तो न चखूँ शकर को मैं

वो जाने और उस की रज़ा जो पसंद हो
सब काम सौंपता हूँ उसी दाद-गर को मैं

होता न दिल में दर्द तो करता न हाए हाए
देता न तूल यूँ सुख़न-ए-मुख़्तसर को मैं