हाल-ए-दिल कहने को कहते हो तो कब तुम मुझ को
हाए जिस वक़्त नहीं ताब-ए-तकल्लुम मुझ को
ख़ाक हो कर भी वही हसरत-ए-पा-बोस रही
हो गई मौज-ए-सबा मौज-ए-तलातुम मुझ को
ज़ोफ़ से हाल ये पतला है रह-ए-उल्फ़त में
सैल-ए-गिर्या पे भी हासिल है तक़द्दुम मुझ को
कहते हैं ज़िक्र-ए-शब-ए-वस्ल पे क्या जानिए क्यूँ
कभी शर्म और कभी आता है तबस्सुम मुझ को
मो'जिज़ा हज़रत-ए-ईसा का था बे-शुबह दुरुस्त
कि मैं दुनिया से गया उठ जो कहा क़ुम मुझ को
सैल-ए-गिर्या की बदौलत ये हुआ घर का हाल
ख़ाक तक भी न मिली बहर-ए-तयम्मुम मुझ को
उन को गिन गिन के शब-ए-हिज्र बसर होती है
तारे आँखों के न क्यूँ होवें ये अंजुम मुझ को
है गज़ी गाढ़ा ही 'कैफ़ी' का शिआ'र और विसार
नहीं दरकार है ये अतलस-ओ-क़ाक़ुम मुझ को
ग़ज़ल
हाल-ए-दिल कहने को कहते हो तो कब तुम मुझ को
दत्तात्रिया कैफ़ी