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हाइल दिलों की राह में कुछ तो अना भी है | शाही शायरी
hail dilon ki rah mein kuchh to ana bhi hai

ग़ज़ल

हाइल दिलों की राह में कुछ तो अना भी है

ज़ाकिर ख़ान ज़ाकिर

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हाइल दिलों की राह में कुछ तो अना भी है
ग़ाफ़िल समझ रहा है वही बा-वफ़ा भी है

आदत बुरी है ग़म में सहारों की दोस्तो
तन्हा सुलगते रहने का अपना मज़ा भी है

हम ने बड़े ही प्यार से रिश्ते सजाए थे
अब तुम कहो कि रिश्तों में क्या कुछ बचा भी है

इक रब्त-ए-मुस्तक़िल है इसी रहगुज़र के साथ
जिस रहगुज़र पे क़ाफ़िला-ए-दिल लुटा भी है

हम रहरवान-ए-शहर-ए-तमन्ना को क्या पता
मंज़िल रह-ए-तलब से कहाँ तक जुदा भी है

है आइने में अक्स मिरा ज़ाहिरी मगर
बातिन में झाँकिए कि वो मुझ से जुदा भी है

मज़लूम-ए-हुस्न हूँ सो न तन्हा समझ मुझे
जिस का नहीं है कोई तो उस का ख़ुदा भी है

बे-ख़ौफ़ बाँटते रहो ज़ुल्मत में नूर तुम
अपनी तपिश से क्या कोई जुगनू जला भी है

पढ़िए मुझे सलीक़े से फिर सोचिए जनाब
क्या दर्द-ए-मुस्तक़िल है मरज़ ला-दवा भी है

'ज़ाकिर' ये ताज-ओ-तख़्त है मंसूब उन के नाम
जिन के सरों पे साया-ए-बाल-ए-हुमा भी है