हाए उर्दू ये सियासत तिरी जागीर के साथ
कोई 'ग़ालिब' का तरफ़-दार कोई 'मीर' के साथ
ज़िंदगी एक सफ़र ख़ौफ़ की ज़ंजीर के साथ
मौत इक ख़्वाब-ए-गिराँ हश्र की ताबीर के साथ
हर अदा हुस्न की महफ़ूज़ है तासीर के साथ
बोलती चलती थिरकती हुई तस्वीर के साथ
ज़ब्त की हद से गुज़र कर भी दुआ करता हूँ
शिकवा-बर-लब हूँ मगर जज़्बा-ए-तामीर के साथ
जानी-पहचानी हुई शक्ल भी मुबहम सी लगे
ज़िंदगी का ये फ़ुसूँ अपनी ही तस्वीर के साथ
अब तो ठोकर भी लगे तो नहीं उठती झंकार
पहले आवाज़ थी हर जुम्बिश-ए-ज़ंजीर के साथ
दीदा-ए-सैद से आगाह न दिल से वाक़िफ़
अजनबी कौन है तरकश में तिरे तीर के साथ
अपनी क़िस्मत के जो मालिक हैं ये उन से पूछो
रब्त तदबीर को होता है जो तक़दीर के साथ
फ़ैज़-ए-मौसम ही सही सेहर-ए-तग़य्युर ही सही
बर्क़ गिरती है मगर आह की तासीर के साथ
अपनी तस्वीर से इक इश्क़ सा होता है 'मतीन'
ये जुनूँ और फ़ुज़ूँ होता तश्हीर के साथ
ग़ज़ल
हाए उर्दू ये सियासत तिरी जागीर के साथ
मतीन नियाज़ी