गुज़री जो रहगुज़र में उसे दरगुज़र किया
और फिर ये तज़्किरा कभी जा कर न घर किया
चश्म-ए-सलीक़ा-साज़ तो ख़ामोश ही रही
रुख़्सत पे तेरी दिल ने बहुत शोर-ओ-शर किया
आज़ुर्दगान-ए-हिज्र की वहशत अजीब है
निकले न घर से और न आबाद घर किया
बे-बर्ग-ओ-बार जिस्म था महरूम-ए-ए'तिबार
सर-गर्मी-ए-सबा ने शजर को शजर किया
अपने सिवा किसी को ये दिल मानता न था
इस दिल को उस्तुवार तिरी आँख पर किया
ये इश्क़ मरहला तो सफ़र-दर-सफ़र का है
अब देखना है किस ने कहाँ तक सफ़र किया
ऐसे कुशादा-दस्त कहाँ के थे हम 'रज़ी'
शायद लिहाज़-ए-ज़हमत-ए-दरयूज़ा-गर किया
ग़ज़ल
गुज़री जो रहगुज़र में उसे दरगुज़र किया
ख़्वाज़ा रज़ी हैदर