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गुज़रे वा'दे को वो ख़ुद याद दिला देते हैं | शाही शायरी
guzre wade ko wo KHud yaad dila dete hain

ग़ज़ल

गुज़रे वा'दे को वो ख़ुद याद दिला देते हैं

आशिक़ अकबराबादी

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गुज़रे वा'दे को वो ख़ुद याद दिला देते हैं
दिल की सोई हुई हसरत को जगा देते हैं

नौ-गिरफ़्तार-ए-क़फ़स हैं नहीं करते फ़रियाद
जान को तेरी ये सय्याद दुआ देते हैं

तालिब-ए-जल्वा-ए-दीदार समझ कर मुझ को
इक झलक सी रुख़-ए-रौशन की दिखा देते हैं

ज़ब्ह करते हैं तड़पने नहीं देते मुझ को
तह-ए-ज़ानू मिरी गर्दन को दबा देते हैं

अपने मौक़े पे हर इक बात भली होती है
शब-ए-फ़ुर्क़त में ये सदमे भी मज़ा देते हैं

ग़ैर के कहने से दर-गोर कहा करते हैं
जीते-जी वो मुझे पैग़ाम-ए-क़ज़ा देते हैं

मैं वो क़ैदी हूँ कि सोने नहीं देते मुझ को
आँख लगती है तो ज़ंजीर हिला देते हैं

ले लिया बोसा-ए-रुख़्सार तो क्या जुर्म किया
प्यार की बात पे नाहक़ वो सज़ा देते हैं

शम-ए-महफ़िल हूँ न आशिक़ न मैं बू-ए-गुल हूँ
मह-जबीं क्यूँ मुझे आँचल की हवा देते हैं

उन के क़ब्ज़े में है कौनैन की शाही 'आशिक़'
शाह वो दे नहीं सकते जो गदा देते हैं