गुज़रे वा'दे को वो ख़ुद याद दिला देते हैं
दिल की सोई हुई हसरत को जगा देते हैं
नौ-गिरफ़्तार-ए-क़फ़स हैं नहीं करते फ़रियाद
जान को तेरी ये सय्याद दुआ देते हैं
तालिब-ए-जल्वा-ए-दीदार समझ कर मुझ को
इक झलक सी रुख़-ए-रौशन की दिखा देते हैं
ज़ब्ह करते हैं तड़पने नहीं देते मुझ को
तह-ए-ज़ानू मिरी गर्दन को दबा देते हैं
अपने मौक़े पे हर इक बात भली होती है
शब-ए-फ़ुर्क़त में ये सदमे भी मज़ा देते हैं
ग़ैर के कहने से दर-गोर कहा करते हैं
जीते-जी वो मुझे पैग़ाम-ए-क़ज़ा देते हैं
मैं वो क़ैदी हूँ कि सोने नहीं देते मुझ को
आँख लगती है तो ज़ंजीर हिला देते हैं
ले लिया बोसा-ए-रुख़्सार तो क्या जुर्म किया
प्यार की बात पे नाहक़ वो सज़ा देते हैं
शम-ए-महफ़िल हूँ न आशिक़ न मैं बू-ए-गुल हूँ
मह-जबीं क्यूँ मुझे आँचल की हवा देते हैं
उन के क़ब्ज़े में है कौनैन की शाही 'आशिक़'
शाह वो दे नहीं सकते जो गदा देते हैं
ग़ज़ल
गुज़रे वा'दे को वो ख़ुद याद दिला देते हैं
आशिक़ अकबराबादी