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ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं | शाही शायरी
ghurur-e-jaan ko mere yar bech dete hain

ग़ज़ल

ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं

अहमद फ़राज़

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ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं
क़बा की हिर्स में दस्तार बेच देते हैं

ये लोग क्या हैं कि दो-चार ख़्वाहिशों के लिए
तमाम उम्र का पिंदार बेच देते हैं

जुनून-ए-ज़ीनत-ए-आराइश-ए-मकाँ के लिए
कई मकीं दर-ओ-दीवार बेच देते हैं

ज़रा भी निर्ख़ हो बाला तो ताजिरान-ए-हरम
गलीम ओ जुब्बा ओ दस्तार बेच देते हैं

बस इतना फ़र्क़ है यूसुफ़ में और मुझ में 'फ़राज़'
कि उस को ग़ैर मुझे यार बेच देते हैं