ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं
क़बा की हिर्स में दस्तार बेच देते हैं
ये लोग क्या हैं कि दो-चार ख़्वाहिशों के लिए
तमाम उम्र का पिंदार बेच देते हैं
जुनून-ए-ज़ीनत-ए-आराइश-ए-मकाँ के लिए
कई मकीं दर-ओ-दीवार बेच देते हैं
ज़रा भी निर्ख़ हो बाला तो ताजिरान-ए-हरम
गलीम ओ जुब्बा ओ दस्तार बेच देते हैं
बस इतना फ़र्क़ है यूसुफ़ में और मुझ में 'फ़राज़'
कि उस को ग़ैर मुझे यार बेच देते हैं
ग़ज़ल
ग़ुरूर-ए-जाँ को मिरे यार बेच देते हैं
अहमद फ़राज़