गुंजाइश-ए-कलाम कहाँ ख़ैर-ओ-शर में है
जब तुम बशर में हो तो सभी कुछ बशर में है
यूँ तो ज़लील-ओ-ख़्वार हर इक की नज़र में है
बंदे की शान चश्म-ए-हक़ीक़त-निगर में है
ग़म-ख़्वार बन गए हैं छिड़कते थे जो नमक
कुछ ऐसी चाशनी मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर में है
अर्ज़-ओ-समा है वक़्फ़-ए-निगाह-ए-उमीद-ओ-यास
दुनिया की ऊँच-नीच हमारी नज़र में है
'कैफ़ी' है सौ बरूँ का बुरा फिर भी सच कहो
ऐसा भी कोई शख़्स तुम्हारी नज़र में है
ग़ज़ल
गुंजाइश-ए-कलाम कहाँ ख़ैर-ओ-शर में है
कैफ़ी हैदराबादी