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गुंजाइश-ए-कलाम कहाँ ख़ैर-ओ-शर में है | शाही शायरी
gunjaish-e-kalam kahan KHair-o-shar mein hai

ग़ज़ल

गुंजाइश-ए-कलाम कहाँ ख़ैर-ओ-शर में है

कैफ़ी हैदराबादी

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गुंजाइश-ए-कलाम कहाँ ख़ैर-ओ-शर में है
जब तुम बशर में हो तो सभी कुछ बशर में है

यूँ तो ज़लील-ओ-ख़्वार हर इक की नज़र में है
बंदे की शान चश्म-ए-हक़ीक़त-निगर में है

ग़म-ख़्वार बन गए हैं छिड़कते थे जो नमक
कुछ ऐसी चाशनी मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर में है

अर्ज़-ओ-समा है वक़्फ़-ए-निगाह-ए-उमीद-ओ-यास
दुनिया की ऊँच-नीच हमारी नज़र में है

'कैफ़ी' है सौ बरूँ का बुरा फिर भी सच कहो
ऐसा भी कोई शख़्स तुम्हारी नज़र में है