गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है 
बात बे-मेहरी-ए-अफ़्लाक पे आ जाती है 
आसमानों पे उड़ो ज़ेहन में रक्खो कि जो चीज़ 
ख़ाक से उठती है वो ख़ाक पे आ जाती है 
रंग-ओ-ख़ुशबू का कहीं कोई करे ज़िक्र तो बात 
घूम फिर कर तिरी पोशाक पे आ जाती है 
बिखरा बिखरा सा है अंदाज़-ए-तकल्लुम उन का 
और तोहमत मिरे इदराक पे आ जाती है 
नख़्ल महफ़ूज़ रहें बाद-ए-हवादिस जो चले 
एक आफ़त ख़स-ओ-ख़ाशाक पे आ जाती है 
छोड़ जाए जो कोई चाहने वाला 'फ़रताश' 
ज़िंदगानी रह-ए-सफ़्फ़ाक पे आ जाती है
        ग़ज़ल
गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है
फ़रताश सय्यद

