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गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है | शाही शायरी
gundh ke miTTi jo kabhi chaak pe aa jati hai

ग़ज़ल

गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है

फ़रताश सय्यद

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गुँध के मिट्टी जो कभी चाक पे आ जाती है
बात बे-मेहरी-ए-अफ़्लाक पे आ जाती है

आसमानों पे उड़ो ज़ेहन में रक्खो कि जो चीज़
ख़ाक से उठती है वो ख़ाक पे आ जाती है

रंग-ओ-ख़ुशबू का कहीं कोई करे ज़िक्र तो बात
घूम फिर कर तिरी पोशाक पे आ जाती है

बिखरा बिखरा सा है अंदाज़-ए-तकल्लुम उन का
और तोहमत मिरे इदराक पे आ जाती है

नख़्ल महफ़ूज़ रहें बाद-ए-हवादिस जो चले
एक आफ़त ख़स-ओ-ख़ाशाक पे आ जाती है

छोड़ जाए जो कोई चाहने वाला 'फ़रताश'
ज़िंदगानी रह-ए-सफ़्फ़ाक पे आ जाती है