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ग़ुंचे चटक गए चमन-ए-रोज़गार के | शाही शायरी
ghunche chaTak gae chaman-e-rozgar ke

ग़ज़ल

ग़ुंचे चटक गए चमन-ए-रोज़गार के

क़द्र बिलगरामी

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ग़ुंचे चटक गए चमन-ए-रोज़गार के
फूटे हबाब मौज-ए-नसीम-ए-बहार के

रिज़वाँ जो टोकेगा दर-ए-फ़िर्दोस पर हमें
कह देंगे रहने वाले हैं हम कू-ए-यार के

आँखें तरस रही हैं मिरी तेरी ज़ुल्फ़ को
तारे चमक रहे हैं शब-ए-इंतिज़ार के

आग़ाज़ में भी हम को है अंजाम का ख़याल
धड़के शबाब में भी हैं रोज़-ए-शुमार के

मज़मून हैं हिरन मिरी बंदिश कमंद है
ऐ 'क़द्र' शाइ'री में मज़े हैं शिकार के