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ग़ुंचा-ए-दिल मिरा खा कर गुल-ए-ख़ंदाँ मेरा | शाही शायरी
ghuncha-e-dil mera kha kar gul-e-KHandan mera

ग़ज़ल

ग़ुंचा-ए-दिल मिरा खा कर गुल-ए-ख़ंदाँ मेरा

वली उज़लत

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ग़ुंचा-ए-दिल मिरा खा कर गुल-ए-ख़ंदाँ मेरा
बू-ए-गुल सा है उड़ाता मुझे जानाँ मेरा

अपनी गर्मी से बरिश्ता हुआ हुस्न-ए-रुख़-ए-यार
लाला-रंग आतिश-ए-गुल से है गुलिस्ताँ मेरा

कभू गुज़रा था कोई आबला-पा देख वफ़ा
रोवे अब लग है लहू ख़ार-ए-बयाबाँ मेरा

इश्क़ ख़ुर्शीद-रुख़ों से जो किया मैं ने जुनूँ
दाग़ जूँ सुब्ह हुआ चाक-ए-गरेबाँ मेरा

कीमिया हुस्न की है मुँह तो ज़रा उस को लगा
जाम-ए-मय से भी गया क्या दिल-ए-गिर्यां मेरा

चोर कर दिल को इनायत किया संगीं दुश्नाम
शीशे को तोड़ के पत्थर दिया तावाँ मेरा

क़त्ल-ए-'उज़लत' से न मुंकिर हो कि गुल के मानिंद
लब पे हँसता है तिरे ख़ून-ए-नुमायाँ मेरा