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गुनाहगारों की उज़्र-ख़्वाही हमारे साहिब क़ुबूल कीजे | शाही शायरी
gunahgaron ki uzr-KHwahi hamare sahib qubul kije

ग़ज़ल

गुनाहगारों की उज़्र-ख़्वाही हमारे साहिब क़ुबूल कीजे

आबरू शाह मुबारक

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गुनाहगारों की उज़्र-ख़्वाही हमारे साहिब क़ुबूल कीजे
करम तुम्हारे की कर तवक़्क़ो ये अर्ज़ कीते हैं मान लीजे

ग़रीब आजिज़ जफ़ा के मारे फ़क़ीर बे-कस गदा तुम्हारे
सो वें सितम सीं मरें बिचारे अगर जो उन पर करम न कीजे

पड़े हैं हम बीच में बला के करम करो वास्ते ख़ुदा के
हुए हैं बंदे तिरी रज़ा के जो कुछ के हक़ में हमारे कीजे

बिपत पड़ी है जिन्हों पे ग़म की जिगर में आतिश लगी अलम की
कहाँ है ताक़त उन्हें सितम की कि जिन पे ईता इताब कीजे

हमारे दिल पे जो कुछ कि गुज़रा तुम्हारे दिल पर अगर हो ज़ाहिर
तू कुछ अजब नहिं पथर की मानिंद अगर यथा दिल की सुन पसीजे

अगर गुनह भी जो कुछ हुआ है कि जिस सीं ईता ज़रर हुआ है
तो हम सीं वो बे-ख़बर हुआ है दिलों सीं इस कूँ भुलाए दीजे

हुए हैं हम 'आबरू' निशाने लगे हैं ताने के तीर खाने
तिरा बुरा हो अरे ज़माने बता तू इस तरह क्यूँ कि जीजे