गुलज़ार में जो दूर गुल-ए-लाला-रंग हो
वो बे-हिजाबियाँ हों कि नर्गिस भी दंग हो
सय्याद ओ बाग़बाँ में बहुत होती है सलाह
ऐसा न हो कहीं गुल ओ बुलबुल में जंग हो
अफ़्सोस मौत भी नहीं आती शब-ए-फ़िराक़
वो क्या करे ग़रीब जो जीने से तंग हो
काफ़ी है बोरिया ही फ़क़ीरों के वास्ते
मायूब है जो शेरों के घर में पलंग हो
लड़ने को दिल जो चाहे तो आँखें लड़ाइए
हो जंग भी अगर तो मज़ेदार जंग हो
जो दोस्त हैं वो माँगते हैं सुल्ह की दुआ
दुश्मन ये चाहते हैं कि आपस में जंग हो
कोई मरे किसी को ख़ुशी हो ख़ुदा की शान
मातम किसी जगह हो कहीं नाच-रंग हो
ग़ज़ल
गुलज़ार में जो दूर गुल-ए-लाला-रंग हो
लाला माधव राम जौहर