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गुलू-ए-यज़दाँ में नोक-ए-सिनाँ भी टूटी है | शाही शायरी
gulu-e-yazdan mein nok-e-sinan bhi TuTi hai

ग़ज़ल

गुलू-ए-यज़दाँ में नोक-ए-सिनाँ भी टूटी है

मख़दूम मुहिउद्दीन

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गुलू-ए-यज़दाँ में नोक-ए-सिनाँ भी टूटी है
कशाकश-ए-दिल-ए-पैग़मबराँ भी टूटी है

सराब है कि हक़ीक़त नज़ारा कि फ़रेब
यक़ीं भी टूटा है तर्ज़-ए-गुमाँ भी टूटी है

सियासत-ए-दिल-आईना चूर चूर तो थी
सियासत-ए-दिल-ए-आहन-गराँ भी टूटी है

अँधेरी रात का ये नीम-बाज़ सन्नाटा
गुलों की साँस रग-ए-गुल्सिताँ भी टूटी है

तुम्हारे जिस्म का सूरज जहाँ जहाँ टूटा
वहीं वहीं मिरी ज़ंजीर-ए-जाँ भी टूटी है

कहाँ हैं आलम-ए-इम्काँ वजूद में आएँ
नज़र नज़र ही रही है जहाँ भी टूटी है

शिकस्त-ओ-रेख़्त ज़माने की ख़ूब है 'मख़दूम'
ख़ुदी तो टूटी थी ख़ू-ए-बुताँ भी टूटी है