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गुलों पे ख़ाक-ए-मेहन के सिवा कुछ और नहीं | शाही शायरी
gulon pe KHak-e-mehan ke siwa kuchh aur nahin

ग़ज़ल

गुलों पे ख़ाक-ए-मेहन के सिवा कुछ और नहीं

दर्शन सिंह

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गुलों पे ख़ाक-ए-मेहन के सिवा कुछ और नहीं
चमन में याद-ए-चमन के सिवा कुछ और नहीं

कहाँ की मंज़िल-ए-रंगीं सहर तो होने दो
हमारे ख़्वाब थकन के सिवा कुछ और नहीं

ये शाम-ए-ग़ुर्बत-ए-दिल है यहाँ चराग़ कहाँ
ख़याल-ए-सुब्ह-ए-वतन के सिवा कुछ और नहीं

निगाह-ए-शौक़-ए-मुसलसल उसी को छेड़े जा
जबीं पे जिस की शिकन के सिवा कुछ और नहीं

दयार-ए-इश्क़ में तुम क्यूँ खड़े हो अहल-ए-हवस
यहाँ तो दार-ओ-रसन के सिवा कुछ और नहीं

सवाद-ए-शाम-ए-ख़िज़ाँ है तो हो हमें क्या ग़म
नज़र में सुब्ह-ए-चमन के सिवा कुछ और नहीं

करे तलाश जुनूँ ज़ुल्मत-ए-ख़िरद से कहो
जुनूँ किरन है किरन के सिवा कुछ और नहीं

हमारी नग़्मा-सराई के वास्ते 'दर्शन'
हवा-ए-गंग-ओ-जमन के सिवा कुछ और नहीं