गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
हुजूम-ए-रंग से अंदाज़ा-ए-बहार न कर
कुछ एहतिराम भी कर ग़म की वज़्अ'-दारी का
गिराँ है अर्ज़-ए-तमन्ना तो बार बार न कर
वो और पुर्सिश-ए-अहल-ए-वफ़ा फ़रेब न खा
दिल और तर्क-ए-ग़म-ए-यार ए'तिबार न कर
ख़िज़ाँ के सैंकड़ों मंज़र हैं ऐ फ़रेब-ए-ख़याल
तुलू-ए-सुब्ह-ए-बहाराँ का ए'तिबार न कर
ग़ज़ल
गुलों की ख़ूँ-शुदगी को शगुफ़्तगी न समझ
सय्यद आबिद अली आबिद