गुल ने ख़ुशबू को तज दिया न रहा
ख़ुद से ख़ुद को किया जुदा न रहा
रात देखे सफ़र के ख़्वाब बहुत
पौ फटी जब तो हौसला न रहा
क़ाफ़िला उस के दम-क़दम से था
चल दिया वो तो क़ाफ़िला न रहा
रब्त उस का ज़माँ से क्या रहता
जब ज़मीं ही से सिलसिला न रहा
तर्क कर ख़ामुशी का मस्लक सुन
हो गया जो भी बे-सदा न रहा
उम्र भर उस ने बेवफ़ाई की
उम्र से भी वो बा-वफ़ा न रहा
आँख खोली तो दूरियाँ थीं बहुत
आँख मीची तो फ़ासला न रहा
किस की ख़ुशबू ने भर दिया था उसे
उस के अंदर कोई ख़ला न रहा
ग़ज़ल
गुल ने ख़ुशबू को तज दिया न रहा
वज़ीर आग़ा