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गुल-ए-सुख़न से अँधेरों में ताब-कारी कर | शाही शायरी
gul-e-suKHan se andheron mein tab-kari kar

ग़ज़ल

गुल-ए-सुख़न से अँधेरों में ताब-कारी कर

इदरीस बाबर

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गुल-ए-सुख़न से अँधेरों में ताब-कारी कर
नए सितारे खिला ख़्वाब-शार जारी कर

बस अब फ़क़ीर की दुनिया में और दख़्ल न दे
तिरी बिसात है दिल भर सो शहर-यारी कर

मैं कारोबार-ए-जहाँ को समेट कर आया
बस इतनी देर तो दिल की निगाह-दारी कर

यहीं कहीं किसी लम्हे में दिल भी है लर्ज़ां
तवज्जोह सारे ज़मानों पे बारी बारी कर

वही न हो कि ये सब लोग साँस लेने लगें
अमीर-ए-शहर कोई और ख़ौफ़ तारी कर

ये क़हत-ए-नूर तो 'बाबर' ख़बर नहीं कब जाए
सो दिल के अर्सा-ए-ख़ाली में ख़्वाब-यारी कर