गुल-अफ़्शानी के दम भरती है चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ क्या क्या
हमारे ज़ेब-ए-दामन है बहार-ए-गुल्सिताँ क्या क्या
कशूद-ए-मतलब-ए-आशिक़ के हैं लब पर गुमाँ क्या क्या
अदा-ए-ख़ामुशी में भर दिया रंग-ए-बयाँ क्या क्या
फ़क़त इक सादगी पर शोख़ियों के हैं गुमाँ क्या क्या
निगाह-ए-शर्मगीं से है निहाँ क्या क्या अयाँ क्या क्या
दिल-ए-ख़ूँ-गश्ता-ए-हसरत ने क्या कुछ गुल खिलाए हैं
बहार-आगीं है कुछ अब की बरस फ़स्ल-ए-ख़िज़ाँ क्या किया
जुनूँ से कम नहीं है कुछ हुजूम-ए-शादमानी भी
हवा-ए-गुल में है जामे से बाहर बाग़बाँ क्या क्या
तसव्वुर में विसाल-ए-यार के सामान होते हैं
हमें भी याद हैं हसरत की बज़्म-आराइयाँ क्या क्या
चली आती है इतराई हुई कुछ कू-ए-जानाँ से
बसी है रश्क की बू में नसीम-ए-बोस्ताँ क्या क्या
क़दम रखते नहीं हैं वो ज़मीं पर बे-नियाज़ी से
बढ़ा जाता है याँ शौक़-ए-सुजूद-ए-आस्ताँ क्या क्या
'ज़हीर'-ए-ख़स्ता-जाँ सच है मोहब्बत कुछ बुरी शय है
मजाज़ी में हक़ीक़ी के हुए हैं इम्तिहाँ क्या क्या
ग़ज़ल
गुल-अफ़्शानी के दम भरती है चश्म-ए-ख़ूँ-फ़िशाँ क्या क्या
ज़हीर देहलवी