गुबार-ए-एहसास-ए-पेश-ओ-पस की अगर ये बारीक तह हटाएँ
तो एक पल में न जाने कितने ज़मानों के अक्स थर्थराएँ
ख़िज़ाँ अगर अपना ख़ूँ न बख़्शे तो फ़स्ल-ए-गुल कैसे सुर्ख़-रू हो
सुकूत अपना जिगर न चीरे तो कैसे झंकार दें सदाएँ
बिखर चले हैं बिखर चुके हैं गुल-ए-इबारत के बर्ग-रेज़े
किताब-ए-जाँ की शहादतों का वरक़ वरक़ ले गईं हवाएँ
हुआ की बे-रंग तख़्तियों पर सदा की तहरीर क्या उभारें
सुकूत के बे-निशाँ खंडर में चराग़-ए-आवाज़ क्या जलाएँ
ये शौक़ की बे-नसीब कलियाँ ये दर्द के बे-ख़िज़ाँ शगूफ़े
तुम्हारे क़दमों में रख न पाए तो किस की चौखट पे जा गिराएँ
हवा की तलवार चल रही हो तो शाख़-ए-उम्मीद क्या सँभालें
बदन की दीवार गिर रही हो तो दिल की दीवार क्या बचाएँ
तमाशा-गाह-ए-तरब-निशाँ में सभी को लाज़िम है मुस्कुराना
जो ग़म-फ़रोशी न करना चाहें वही यहाँ बख़्त आज़माएँ
मुहीब रातों में डगमगाते दुखी बदन के मुसाफ़िरों को
अकेले-पन में डरा रही है समय के जंगल की साएँ साएँ
तमाम अल्फ़ाज़ मर चुके हैं तमाम अहबाब जा चुके हैं
गई रुतों के सितम का क़िस्सा सुनाएँ कैसे किसे सुनाएँ
ग़ज़ल
गुबार-ए-एहसास-ए-पेश-ओ-पस की अगर ये बारीक तह हटाएँ
असलम अंसारी