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ग़ुबार-ए-दश्त-ए-तलब में हैं रफ़्तगाँ क्या क्या | शाही शायरी
ghubar-e-dasht-e-talab mein hain raftagan kya kya

ग़ज़ल

ग़ुबार-ए-दश्त-ए-तलब में हैं रफ़्तगाँ क्या क्या

अमजद इस्लाम अमजद

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ग़ुबार-ए-दश्त-ए-तलब में हैं रफ़्तगाँ क्या क्या
चमक रहे हैं अँधेरे में उस्तुख़्वाँ क्या क्या

दिखा के हम को हमारा ही क़ाश क़ाश बदन
दिलासे देते हैं देखो तो क़ातिलाँ क्या क्या

घुटी दिलों की मोहब्बत तो शहर बढ़ने लगा
मिटे जो घर तो हुवैदा हुए मकाँ क्या क्या

पलट के देखा तो अपने निशान-ए-पा भी न थे
हमारे साथ सफ़र में थे हमरहाँ क्या क्या

हलाक-ए-नाला-ए-शबनम ज़रा नज़र तो उठा
नुमूद करते हैं आलम में गुल-रुख़ाँ क्या क्या

कहीं है चाँद सवाली कहीं गदा ख़ुर्शीद
तुम्हारे दर पर खड़े हैं ये साइलाँ क्या क्या

बिछड़ के तुझ से न जी पाए मुख़्तसर ये है
इस एक बात से निकली है दास्ताँ क्या क्या

है पुर-सुकून समुंदर मगर सुनो तो सही
लब-ए-ख़मोश से कहते हैं बादबाँ क्या क्या

किसी का रख़्त-ए-मसाफ़त तमाम धूप ही धूप
किसी के सर पे कशीदा हैं साएबाँ क्या क्या

निकल ही जाएगी इक दिन मदार से ये ज़मीं
अगरचे पहरे पे बैठे हैं आसमाँ क्या क्या

फ़ना की चाल के आगे किसी की कुछ न चली
बिसात-ए-दहर से उट्ठे हिसाब-दाँ क्या क्या

किसे ख़बर है कि 'अमजद' बहार आने तक
ख़िज़ाँ ने चाट लिए होंगे गुलिस्ताँ क्या क्या