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गोया ज़बान हाल थी 'साहिर' ख़मोश था | शाही शायरी
goya zaban haal thi sahir KHamosh tha

ग़ज़ल

गोया ज़बान हाल थी 'साहिर' ख़मोश था

साहिर देहल्वी

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गोया ज़बान हाल थी 'साहिर' ख़मोश था
ये सई-ए-ज़ब्त थी वो तक़ाज़ा-ए-जोश जोश था

पर्दे में लन-तरानी थी रग रग में जोश था
चमकी जो बर्क़ हुस्न न मैं था न होश था

मयख़ाना-ए-ख़याल में मस्ती का जोश था
गुल था चराग़-ए-अक़्ल में गुम-कर्दा होश था

बे-हर्फ़-ओ-सौत था मेरा नज़ारा-ओ-कलाम
राज़-ओ-नियाज़ बे-असर चश्म-ओ-गोश था

कैफ़ियतें हैं कुछ मुझे जोश-ए-जुनूँ की याद
बैठा जो कोई नीश-ए-रग-ए-जाँ में नोश था

तेरे क़तील-ए-ग़म्ज़ा को तन था वबाल-ए-जाँ
तेरे शहीद-ए-नाज़ को सरबार दोश था

दिल कान-ए-मअ'रिफ़त का था इक जौहर-ए-लतीफ़
गो उन्सुरी वजूद में ये ख़ाक पोश था

क्या मस्तियाँ थीं शब निगह-ए-मस्त-ए-नाज़ से
साक़ी ब-ग़म्ज़ा बुग़्चा-ए-मय-फ़रोश था

मीना ने गोश-ए-जाम में झुक कर कहा ये राज़
हक़ हक़-ए-नवेद-ए-वस्ल-ओ-पयाम-ए-सरोश था

क्या क्या थीं हुस्न-ओ-इश्क़ में बाहम इशारतें
था कोई सख़्त गीर कोई सख़्त कोश था

सर्फ़-ए-नज़ारा चश्म थी वक़्फ़-ए-कलाम-ए-गोश
दिल जल्वा-मस्त और लब-ए-'साहिर' ख़मोश था