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गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है | शाही शायरी
go siyah-baKHt hun par yar lubha leta hai

ग़ज़ल

गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है

शाह नसीर

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गो सियह-बख़्त हूँ पर यार लुभा लेता है
शक्ल साया के मुझे साथ लगा लेता है

गो मुलाक़ात नहीं आलम-ए-बेदारी में
ख़्वाब में पर वो हमें साथ सुला लेता है

अश्क को टुक बुन-ए-मिज़्गाँ में ठहरने दे दिला
ये तिरा देख तो हाँ देख तो क्या लेता है

राही-ए-मुल्क-ए-अदम से न कर इतनी काविश
दम मुसाफ़िर ये तह-ए-नख़्ल ज़रा लेता है

शीशा-ए-दिल में मिरे तेरे ख़याल-ए-ख़त से
आ गया बाल है तो मोल उसे क्या लेता है

ये मसल ऐ बुत-ए-मय-नोश सुनी है कि नहीं
ले है बर्तन जो कोई उस को बजा लेता है

तू वो है नाम-ए-ख़ुदा ऐ बुत-ए-काफ़िर कि तिरे
ज़ाहिद-ए-गोशा-नशीं भी क़दम आ लेता है

दिल पे तलवार सी कुछ लगती है जब ग़ैर को तू
पास अबरू के इशारे से बुला लेता है

क्यूँ न फूले दिल-ए-सद-चाक हमारा यारो
गुल समझ कर वो उसे सर पे चढ़ा लेता है

मौज-ए-दरिया तो कब अटखेली से यूँ चलती है
पर तिरी कब्क-ए-दरी चाल उड़ा लेता है

ज़ुल्फ़-ए-मुश्कीं को न छेड़ उस की दिला मान कहा
अपने क्यूँ सर पे बला अहल-ए-ख़ता लेता है

हूक सी उठती है कुछ दिल में मिरे आह 'नसीर'
जब वो पहलू में रक़ीबों को बिठा लेता है