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गिर्या तो अक्सर रहा पैहम रहा | शाही शायरी
girya to aksar raha paiham raha

ग़ज़ल

गिर्या तो अक्सर रहा पैहम रहा

मुस्तफ़ा ज़ैदी

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गिर्या तो अक्सर रहा पैहम रहा
फिर भी दिल के बोझ से कुछ कम रहा

क़ुमक़ुमे जलते रहे बुझते रहे
रात-भर सीने में इक आलम रहा

उस वफ़ा-दुश्मन से छुट जाने के बाद
ख़ुद को पा लेने का कितना ग़म रहा

अपनी हालत पर हँसी भी आई थी
इस हँसी का भी बड़ा मातम रहा

इतने रब्त इतनी शनासाई के बाद
कौन किस के हाल का महरम रहा

पत्थरों से भी निकल आया जो तीर
वो मिरे पहलू में आ कर जम रहा

ज़ेहन ने क्या कुछ न कोशिश की मगर
दिल की गहराई में इक आदम रहा