गिरते गिरते सँभल रहा हूँ मैं 
दस्तरस से निकल रहा हूँ मैं 
धूप का भी अजब तमाशा है 
अपने साए पे चल रहा हूँ मैं 
गुफ़्तुगू है मेरी गुलाबों सी 
शख़्सियत में कँवल रहा हूँ मैं 
धूप जब से मली है चेहरे पर 
रफ़्ता रफ़्ता पिघल रहा हूँ मैं 
गिर्द मेरे है वहशतों का हुजूम 
एक जंगल में पल रहा हूँ मैं 
एक हिचकी का खेल है 'माहिर' 
इस क़दर क्यूँ मचल रहा हूँ मैं
        ग़ज़ल
गिरते गिरते सँभल रहा हूँ मैं
नदीम माहिर

