गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
करते हैं बहुत लोग मगर हम नहीं करते
है अपनी तबीअत में जो ख़ामी तो यही है
हम इश्क़ तो करते हैं मगर कम नहीं करते
नफ़रत से तो बेहतर है कि रस्ते ही जुदा हों
बेकार गुज़रगाहों को बाहम नहीं करते
हर साँस में दोज़ख़ की तपिश सी है मगर हम
सूरज की तरह आग को मद्धम नहीं करते
क्या इल्म कि रोते हों तो मर जाते हों 'फ़ैसल'
वो लोग जो आँखों को कभी नम नहीं करते
ग़ज़ल
गिर जाए जो दीवार तो मातम नहीं करते
फ़ैसल अजमी