घुल सी गई रूह में उदासी
रास आई न हम को ख़ुद-शनासी
हर मोड़ पे बे-कशिश खड़ी है
इक ख़ुश-बदनी ओ कम-लिबासी
लालच में परों के पैर छूटे
अब रख़्त-ए-सफ़र है बे-असासी
नफ़्स-ए-मज़मूँ इसी में है गो
मज़मून-ए-नफ़स है इक़तिबासी
आई भी तो क्या निगार-ए-ताबीर
ओढ़े हुए ख़्वाब की रिदा सी
जादू सा अलम का कर गई 'साज़'
उन आँखों की मुल्तफ़ित उदासी
ग़ज़ल
घुल सी गई रूह में उदासी
अब्दुल अहद साज़