घेरा डाले हुए है दुश्मन बचने के आसार कहाँ
ख़ाली हाथ खड़े हो 'पाशी' रख आए तलवार कहाँ
क्यूँ लोगों से मेहर-ओ-वफ़ा की आस लगाए बैठे हो
झूट के इस मकरूह नगर में लोगों का किरदार कहाँ
क्या हसरत से देख रहे हैं हमें ये जगमग से साहिल
हाए हमारे हाथों से भी छूटे हैं पतवार कहाँ
ख़त्म हुआ हर ख़्वाब-ए-तमाशा राख हुआ हर शहर-ए-सदा
दश्त है हर सू तन्हाई का हुए हैं हम बेदार कहाँ
दूर दूर तक कोई नहीं अब तुझे बचा ले जो आ कर
दाद तो दे दुश्मन को 'पाशी'! किया है उस ने वार कहाँ

ग़ज़ल
घेरा डाले हुए है दुश्मन बचने के आसार कहाँ
कुमार पाशी