घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए
हम यूँ चले कि राह के पत्थर भी हिट गए
हम ने खुले किवाड़ पे दस्तक सुनी मगर
वो कौन लोग थे कि जो आ कर पलट गए
दर बंद ही रखो कि हवाओं का ज़ोर है
अब के खुले किवाड़ तो समझो कि पिट गए
ग़ारत-गरी-ए-ज़ोर-ए-तलातुम अरे ग़ज़ब
कश्ती के बादबान हवाओं से फट गए
सहरा की तेज़ धूप घने जंगलों की छाँव
इन में मिरे नसीब के दिन रात बट गए
शोहरत की आरज़ू ने किया बे-वतन हमें
इतनी बढ़ी ग़रज़ कि उसूलों से हट गए
जब जब भी मैं नय तर्क-ए-वतन का किया ख़याल
क़दमों से मेरे गाँव के रस्ते लिपट गए
किन से करें शिकायत-ए-जौर-ओ-सितम 'ज़फ़र'
अपने गले तो अपने ही ख़ंजर से कट गए
ग़ज़ल
घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए
ज़फ़र कलीम