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घर बुलाता है कभी शौक़-ए-सफ़र खींचता है | शाही शायरी
ghar bulata hai kabhi shauq-e-safar khinchta hai

ग़ज़ल

घर बुलाता है कभी शौक़-ए-सफ़र खींचता है

महमूद तासीर

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घर बुलाता है कभी शौक़-ए-सफ़र खींचता है
दौड़ पड़ता हूँ मुझे जो भी जिधर खींचता है

इस तरह खींचती हैं मुझ को किसी की आँखें
जैसे तूफ़ान में कश्ती को भँवर खींचता है

कैसे मुमकिन है भला चाँद न देखे कोई
हुस्न कामिल हो तो फिर ख़ुद ही नज़र खींचता है

शाम ढलते ही तेरी सम्त चला आता हूँ
जैसे भटके हुए पंछी को शजर खींचता है

उस के कूचे से गुज़रने का सबब है तासीर
एक झोंका सा है ख़ुश्बू का इधर खींचता है

शौक़ की बात है वर्ना सुख़न आसान नहीं
एक मिस्रा भी मियाँ ख़ून-ए-जिगर खींचता है