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घड़ी-भर आज वो मुझ से रहा ख़ुश | शाही शायरी
ghaDi-bhar aaj wo mujhse raha KHush

ग़ज़ल

घड़ी-भर आज वो मुझ से रहा ख़ुश

सफ़ी औरंगाबादी

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घड़ी-भर आज वो मुझ से रहा ख़ुश
ख़ुदा रक्खे उसे इस से सिवा ख़ुश

ये मैं जो हर तरह नाशाद-ओ-नाख़ुश
फिर ऐसे से रहे उन की बला ख़ुश

कभी ख़ुश है कभी वो मुझ से ना-ख़ुश
हमेशा कौन दुनिया में रहा ख़ुश

तुम्हीं तुम ख़ुश तो फिर के लुत्फ़-ए-सोहबत
मज़ा मिलने का है हो दूसरा ख़ुश

तुम्हीं-तुम ख़ुश तो फिर क्या लुत्फ़-ए-सोहबत
मज़ा मिलने का है हो दूसरा ख़ुश

ख़ुशी की मिल गईं दो-चार साँसें
कि वो बद-अहद आया ख़ुश गया ख़ुश

जो वो बातों से ख़ुश करने पे आते
तो होते बंदा-ए-दरगाह क्या ख़ुश

समझते हैं कि ये गुस्ताख़ भी है
ज़रा ना-ख़ुश हैं वो मुझ से ज़रा ख़ुश

कहाँ तक ज़ब्त अब करता हूँ नाला
सितमगर ख़ुश रहे मुझ से कि ना-ख़ुश

दर-ए-दौलत पे थे लाखों भिकारी
न पल्टा कोई महरूम और ना-ख़ुश

इलाही-बख़्त तू बेदार-ए-बादा
अदू ना-ख़ुश रहीं और आश्ना ख़ुश

सुनी है बारहा मेरी तमन्ना
किया है उस ने मुझ को बारहा ख़ुश

ख़ुशी से आज उस ने बात कर ली
तबीअ'त हो गई बे-इंतिहा ख़ुश

करो वो काम जो कल काम आए
चलो वो चाल जिस से हो ख़ुदा ख़ुश

इलाही दौर-ए-उसमानी हो दाएम
कि है इस अहद में छोटा बड़ा ख़ुश

ख़ुशी मेरी किसी के हाथ में है
हुआ ख़ुश जो किसी ने कर दिया ख़ुश

'सफ़ी' मेरी ख़ुशी-ओ-ना-ख़ुशी क्या
रक्खा जिस हाल में उस ने रहा ख़ुश