ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं
अभी से कुछ दिल-ए-मुज़्तर पर अपने तीर चलते हैं
ज़रा देखो तो ऐ अहल-ए-सुख़न ज़ोर-ए-सनाअत को
नई बंदिश है मजनूँ नूर के साँचे में ढलते हैं
बुरा हो इश्क़ का ये हाल है अब तेरी फ़ुर्क़त में
कि चश्म-ए-ख़ूँ-चकाँ से लख़्त-ए-दिल पैहम निकलते हैं
हिला देंगे अभी ऐ संग-दिल तेरे कलेजे को
हमारी आह-ए-आतिश-बार से पत्थर पिघलते हैं
तिरा उभरा हुआ सीना जो हम को याद आता है
तो ऐ रश्क-ए-परी पहरों कफ़-ए-अफ़्सोस मिलते हैं
किसी पहलू नहीं चैन आता है उश्शाक़ को तेरे
तड़पते हैं फ़ुग़ाँ करते हैं और करवट बदलते हैं
'रसा' हाजत नहीं कुछ रौशनी की कुंज-ए-मरक़द में
बजाए-शम्अ याँ दाग़-ए-जिगर हर वक़्त जलते हैं
ग़ज़ल
ग़ज़ब है सुर्मा दे कर आज वो बाहर निकलते हैं
भारतेंदु हरिश्चंद्र