ग़र्क़ न कर दिखला कर दिल को कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
बहर-ए-हुस्न के हैं ये भँवर दो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
हाला-ए-मह पहुँचे है नुह उस को नय ख़त-ए-साग़र उस को लगे है
आईना तुम ले कर देखो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
आहू-ए-दिल और ताइर-ए-जाँ के हक़ में ये दोनों फंदे हैं
हम को दिखा कर तुम न छुपाओ कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
आज सिवाए शाने के याँ किस का मुँह है कौन है ऐसा
छोड़े तुम्हारे चेहरे पर जो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
दोनों तेरे आरिज़ पर दिन रात मिले ये रहते हैं
ऐनक-ए-महर-ओ-माह न क्यूँ हो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
तैश-ज़नी में ये अक़रब है काला है वो कुंडली मारे
हज़रत-ए-दिल बाज़ आओ न छेड़ो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
किस को हिसार-ए-हुस्न कहूँ मैं किस को ख़त-ए-परकार कहे दिल
मुँह से उलट बुर्क़ा को दिखा दो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
ये तिरे रुख़ के बोसे लें और तरसें मिरी आँखें ऐ वाए
देख के क्यूँ रश्क आए न मुझ को कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
आज ज़ुलेख़ा गर यहाँ होती दाम-ए-कमंद-ओ-चाह में फॅंसती
देख मिरे यूसुफ़ का अज़ीज़ो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
क्यूँकि 'नसीर' अर्बाब-ए-सुख़न तहसीं न करें सुन कर ये ग़ज़ल
जबकि तुम इस सूरत से बाँधो कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
ग़ज़ल
ग़र्क़ न कर दिखला कर दिल को कान का बाला ज़ुल्फ़ का हल्क़ा
शाह नसीर