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गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला | शाही शायरी
garm-e-fughan hai jaras uTh ki gaya qafila

ग़ज़ल

गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला

अल्लामा इक़बाल

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गर्म-ए-फ़ुग़ाँ है जरस उठ कि गया क़ाफ़िला
वाए वो रह-रौ कि है मुंतज़़िर-ए-राहिला

तेरी तबीअत है और तेरा ज़माना है और
तेरे मुआफ़िक़ नहीं ख़ानक़ही सिलसिला

दिल हो ग़ुलाम-ए-ख़िरद या कि इमाम-ए-ख़िरद
सालिक-ए-रह होशियार सख़्त है ये मरहला

उस की ख़ुदी है अभी शाम-ओ-सहर में असीर
गर्दिश-ए-दौराँ का है जिस की ज़बाँ पर गिला

तेरे नफ़स से हुई आतिश-ए-गुल तेज़-तर
मुर्ग़-ए-चमन है यही तेरी नवा का सिला