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ग़रीब हम हैं ग़रीबों की भी ख़ुशी हो जाए | शाही शायरी
gharib hum hain gharibon ki bhi KHushi ho jae

ग़ज़ल

ग़रीब हम हैं ग़रीबों की भी ख़ुशी हो जाए

रियाज़ ख़ैराबादी

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ग़रीब हम हैं ग़रीबों की भी ख़ुशी हो जाए
नज़र हुज़ूर इधर भी कभी कभी हो जाए

ग़ुरूर भी जो करूँ मैं तो आजिज़ी हो जाए
ख़ुदी में लुत्फ़ वो आए कि बे-ख़ुदी हो जाए

ग़म-ए-फ़िराक़ की सख़्ती विसाल से बदले
जो मौत आए मुझे मेरी ज़िंदगी हो जाए

मिरी शराब की क्या क़द्र तुझ को ऐ वाइ'ज़
जिसे मैं पी के दुआ दूँ वो जन्नती हो जाए

मैं उस निगाह के सदक़े ये हो असर जिस में
कि दिल में दर्द भी उठ्ठे तो गुदगुदी हो जाए

सितम भी हो तो सितम में वो लुत्फ़ पिन्हाँ हो
कि नाला आ के मिरे होंठ पर हँसी हो जाए

न पूछो बादा-गुसारान-ए-बज़्म-ए-'वारिस' की
ये देख लें सू-ए-वाइज़ तो वो वली हो जाए

हटा रहा हूँ शब-ओ-रोज़ इस लिए ख़ुद को
फ़ना के राज़ से मुझ को भी आगही हो जाए

तिरी निगाह-ए-करम से अजब नहीं वारिस
'रियाज़' सा सग-ए-दुनिया भी आदमी हो जाए