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गरेबाँ से तिरे किस ने निकाला सुब्ह-ए-ख़ंदाँ को | शाही शायरी
gareban se tere kis ne nikala subh-e-KHandan ko

ग़ज़ल

गरेबाँ से तिरे किस ने निकाला सुब्ह-ए-ख़ंदाँ को

वहीदुद्दीन सलीम

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गरेबाँ से तिरे किस ने निकाला सुब्ह-ए-ख़ंदाँ को
किया किस ने निहाँ दामन की कलियों से गुलिस्ताँ को

उड़ाया चुटकियों में मेरे ज़र्रे ने बयाबाँ को
मिरे क़तरे ने पानी कर दिया हर मौज-ए-तूफ़ाँ को

मिरी कश्ती भँवर से खेलने का शौक़ रखती है
ये किस ने कर दिया ख़ामोश यारब मौज-ए-तूफ़ाँ को

ये क्या नग़्मा था छेड़ा जो यकायक क़ल्ब-ए-मुज़्तर ने
कि मेरी नय ने रक़्साँ कर दिया सारे गुलिस्ताँ को

मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि चमका तेरे परतव से
लगी हैं खींचने किरनें मिरी मेहर-ए-दरख़्शाँ को

मिरे ज़ौक़-ए-फ़ना पर ज़िंदगी है ख़िज़्र की क़ुर्बां
मिरे तलख़ाबा-ए-ग़म में डुबो दो आब-ए-हैवाँ को

कलीम-ए-तूर-ए-मा'नी हूँ यद-ए-बैज़ा है मेरा दिल
मुनव्वर कर दिया जिस ने मिरे चाक-ए-गरेबाँ को