गरेबाँ-चाक मजनूँ बन से निकला
मैं ले कर धज्जियाँ दामन से निकला
कहीं जल्वा भी पर्दे में रहा है
वो देखो नूर इक चिलमन से निकला
जुनूँ ने राह ये अच्छी निकाली
गरेबाँ पहाड़ कर दामन से निकला
बहार आई चमन में खिल गए फूल
कोई हँसता हुआ गुलशन से निकला
रवानी अश्क की होती नहीं बंद
अजब दरिया मिरे दामन से निकला
ख़िज़ाँ आई मदीने के चमन में
'शरफ़' रोता हुआ गुलशन से निकला
ग़ज़ल
गरेबाँ-चाक मजनूँ बन से निकला
शरफ़ मुजद्दिदी