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गरेबाँ चाक हैं गुल बोस्ताँ में | शाही शायरी
gareban chaak hain gul bostan mein

ग़ज़ल

गरेबाँ चाक हैं गुल बोस्ताँ में

मीर मेहदी मजरूह

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गरेबाँ चाक हैं गुल बोस्ताँ में
असर कितना है बुलबुल की फ़ुग़ाँ में

क़फ़स सय्याद का ख़ाली पड़ा है
न हों बेचैन क्यूँ कर आशियाँ में

दुआ-ए-वस्ल जा अब तो असर तक
किए नालों ने रौज़न आसमाँ में

सुने गर ताला-ए-ख़ुफ़्ता का क़िस्सा
तो नींद आ जाए चश्म-ए-पासबाँ में

ज़ुलेख़ा की मिची जाती हैं आँखें
कहीं यूसुफ़ न हो इस कारवाँ में

तमाम अस्बाब-ए-दुनियावी के बदले
है इक बे-रौनक़ी अपनी दुकाँ में

सुना हाल-ए-दिल-ए-'मजरूह' शब को
कोई हसरत सी हसरत थी बयाँ में