गर्दिश-ए-चश्म है पैमाने में
तुम गए हो कभी मयख़ाने में
एक जल्वा सा नज़र आता है
कोई तो है मिरे ग़म-ख़ाने में
यूँ है सीने में दिल-ए-पुर-हसरत
क़ब्र जैसे किसी वीराने में
साज़-ए-नैरंग है मेरी ज़ंजीर
नई आवाज़ है हर दाने में
देख ऐ दिल न मुझे छोड़ के जा
फ़र्क़ आ जाएगा याराने में
जल के आशिक़ हुए मा'शूक़ सिफ़त
शम्अ' का सोज़ है परवाने में
जान उस बुत में लगी रहती है
अपने को पाते हैं बेगाने में
बे-ख़ुदी ने न कहीं का रक्खा
हम हैं बस्ती में न वीराने में
संग-ए-दर तक तिरे जब सर पहुँचा
लाख सज्दे किए शुक्राने में
नहीं मा'लूम गया किस जानिब
दिल लगा है तिरे दीवाने में
क़िस्सा-ए-हज़रत-ए-यूसुफ़ न सुनो
तुर्फ़ा इबरत है इस अफ़्साने में
हाल-पुर्सी नहीं करता कोई
बेकसी है मिरे ग़म-ख़ाने में
इस तरह दिल में है आहों का धुआँ
जैसे ख़ाक उड़ती है वीराने में
बरकत किस के क़दम की है 'रशीद'
कि अज़ाँ होती है बुत-ख़ाने में
ग़ज़ल
गर्दिश-ए-चश्म है पैमाने में
रशीद लखनवी