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गर्दिश-ए-चश्म है पैमाने में | शाही शायरी
gardish-e-chashm hai paimane mein

ग़ज़ल

गर्दिश-ए-चश्म है पैमाने में

रशीद लखनवी

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गर्दिश-ए-चश्म है पैमाने में
तुम गए हो कभी मयख़ाने में

एक जल्वा सा नज़र आता है
कोई तो है मिरे ग़म-ख़ाने में

यूँ है सीने में दिल-ए-पुर-हसरत
क़ब्र जैसे किसी वीराने में

साज़-ए-नैरंग है मेरी ज़ंजीर
नई आवाज़ है हर दाने में

देख ऐ दिल न मुझे छोड़ के जा
फ़र्क़ आ जाएगा याराने में

जल के आशिक़ हुए मा'शूक़ सिफ़त
शम्अ' का सोज़ है परवाने में

जान उस बुत में लगी रहती है
अपने को पाते हैं बेगाने में

बे-ख़ुदी ने न कहीं का रक्खा
हम हैं बस्ती में न वीराने में

संग-ए-दर तक तिरे जब सर पहुँचा
लाख सज्दे किए शुक्राने में

नहीं मा'लूम गया किस जानिब
दिल लगा है तिरे दीवाने में

क़िस्सा-ए-हज़रत-ए-यूसुफ़ न सुनो
तुर्फ़ा इबरत है इस अफ़्साने में

हाल-पुर्सी नहीं करता कोई
बेकसी है मिरे ग़म-ख़ाने में

इस तरह दिल में है आहों का धुआँ
जैसे ख़ाक उड़ती है वीराने में

बरकत किस के क़दम की है 'रशीद'
कि अज़ाँ होती है बुत-ख़ाने में