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गर्द-आलूद दरीदा चेहरा यूँ है माह ओ साल के ब'अद | शाही शायरी
gard-alud darida chehra yun hai mah o sal ke baad

ग़ज़ल

गर्द-आलूद दरीदा चेहरा यूँ है माह ओ साल के ब'अद

तौसीफ़ तबस्सुम

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गर्द-आलूद दरीदा चेहरा यूँ है माह ओ साल के ब'अद
जैसे फ़लक बारिश से पहले जैसे ज़मीं भौंचाल के ब'अद

मुर्दा लोगों की बस्ती में सुनता हूँ आवाज़ें सी
जैसे मक़्तल का सन्नाटा बोले आम क़िताल के ब'अद

हिज्र तो पहले भी आया था लेकिन अब वहशत है और
चलती हवा से लड़ते हैं हम एक परी-तिमसाल के ब'अद

भर जाएँगी जिस दम शाख़ें सब्ज़ महकते पत्तों से
जोगी आते जाते मौसम लौटेंगे फिर साल के ब'अद

रात बदन यूँ लौ देते थे जैसे संदल जलता हो
लेकिन दिल-ए-दीवाना चाहे और भी कुछ हो विसाल के ब'अद

गर सोचें तो हिज्र-ज़दों ने यूँ भी पाई उम्र बड़ी
उठ्ठे दिल में दर्द से पहले बैठे गर्द मलाल के ब'अद

कौन से दुख को पल्ले बाँधें किस ग़म को तहरीर करें
याँ तो दर्द सिवा होता है और भी अर्ज़-ए-हाल के ब'अद