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गर मेरे बैठने से वो आज़ार खींचते | शाही शायरी
gar mere baiThne se wo aazar khinchte

ग़ज़ल

गर मेरे बैठने से वो आज़ार खींचते

मीर तस्कीन देहलवी

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गर मेरे बैठने से वो आज़ार खींचते
तो अपने दर की आ के वो दीवार खींचते

नाज़ ओ अदा ओ ग़म्ज़ा से यूँ दिल लिया मिरा
ले जाएँ जैसे मस्त को हुश्यार खींचते

वा हसरता हुई उन्हें आने की तब ख़बर
लाए जब उस गली में मुझे यार खींचते

आएगा उन के कहने से वो गुल यहाँ तलक
काँटों पे क्यूँ हैं अब मुझे अग़्यार खींचते

वाँ शौक़ जालियों का है उस जामा-ज़ेब को
याँ अपने पैरहन से हैं हम तार खींचते

तेग़-ए-निगाह-ए-यार उचटती लगी है फिर
बरसों गुज़र गए मुझे आज़ार खींचते

कहते हैं शब वो कहते थे आता है जी घुटा
नाले जो हम रहे पस-ए-दीवार खींचते

आज़ुर्दा उन को देखते ही जाँ निकल गई
वो देख मुझ को रह गए तलवार खींचते

'तस्कीन' का चाक चाक हुआ दिल जो शाने को
देखा किसी का तुर्रा-ए-तर्रार खींचते