गर दोस्तो तुम ने उसे देखा नहीं होता
कहने का तुम्हारे मुझे शिकवा नहीं होता
गर कहिए कि जी मिलने को तेरा नहीं होता
कहता है कि हाँ हाँ नहीं होता नहीं होता
क़ासिद के भी गर आने की उम्मीद न होती
इक दम भी तो जीने का भरोसा नहीं होता
यूँही सही हम हिज्र में मर जाते बला से
बस और तो कुछ इस से ज़ियादा नहीं होता
क्यूँ कहते हो तुम मुझ से कि आना नहीं मंज़ूर
ये किस लिए कहते हो कि आना नहीं होता
गो ग़ैर बुराई से करें ज़िक्र हमारा
इतना भी तो वाँ ज़िक्र हमारा नहीं होता
लब तक भी कभी हर्फ़-ए-तमन्ना नहीं आया
ऐसा कोई महरूम-ए-तमन्ना नहीं होता
बीमारी-ए-हिज्राँ से तो मरना ही भला था
अच्छा जो मैं होता तो कुछ अच्छा नहीं होता
गर ग़ैर से कुछ तुम को मोहब्बत नहीं होती
तो हम को ये रश्क-ए-क़लक़-अफ़्ज़ा नहीं होता
ये सच है कि तुम आओगे पर दिल को करूँ क्या
कहने का यक़ीं आप के असला नहीं होता
होता है वो सब कुछ जो सुना हो कभी तुम ने
इक तेरे न होने से यहाँ क्या नहीं होता
अब समझे कि यूँ हम को बुलाते न कभी तुम
गर आप की महफ़िल का ये नक़्शा नहीं होता
गो झूट हो धोका हो तसल्ली तो है दिल को
होता है क़लक़ और जो व'अदा नहीं होता
मक़्बूल तमन्ना तो 'निज़ाम' अपनी कहाँ हो
मक़्बूल वहाँ उज़्र-ए-तमन्ना नहीं होता
ग़ज़ल
गर दोस्तो तुम ने उसे देखा नहीं होता
निज़ाम रामपुरी