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ग़नीमत है हँस कर अगर बात की | शाही शायरी
ghanimat hai hans kar agar baat ki

ग़ज़ल

ग़नीमत है हँस कर अगर बात की

राशिद मुफ़्ती

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ग़नीमत है हँस कर अगर बात की
यहाँ किस ने किस की मुदारात की

घुटन क्यूँ न महसूस हो शहर में
हवा चल पड़ी है मज़ाफ़ात की

नज़र उस को मैं आता हूँ ठीक-ठाक
उसे क्या ख़बर मेरे हालात की

हमीं आज हक़ से भी महरूम हैं
हमीं पर थी बारिश मुराआत की

मुक़द्दर तो मेरा सँवारोगे क्या!
लकीरें मिटा दो मिरे हात की

ज़ियाँ ही ज़ियाँ है फ़क़त नफ़्इ में
कोई और सूरत कर इसबात की

मुकम्मल नहीं यूँ तो कोई वजूद
कमी मुझ में है कौन सी बात की