ग़मों की रात है और इतनी मुख़्तसर भी नहीं
बहुत दिनों से तुम्हारी कोई ख़बर भी नहीं
ऐ शहर-ए-दिल तिरी गलियों में ख़ाक उड़ती है
ये क्या हुआ कि यहाँ कोई नौहागर भी नहीं
तू मेरे साथ नहीं है तो सोचता हूँ मैं
कि अब तो तुझ से बिछड़ने का कोई डर भी नहीं
मैं अपना दर्द किसी और से कहूँ कैसे
मिरे बदन पे कोई ज़ख़्म-ए-मो'तबर भी नहीं
चलाओ तेग़ कि अब इस में सोचना क्या है
मिरे हरीफ़ मिरे हाथ में सिपर भी नहीं
हैं तेरी फ़त्ह में अब भी शिकस्त के इम्कान
मिरी शिकस्त में अंदेशा-ए-ज़फ़र भी नहीं
जो वाशगाफ़ करे मेरे रम्ज़ को 'शाहिद'
सुख़न-वरों में कोई ऐसा दीदा-वर भी नहीं
ग़ज़ल
ग़मों की रात है और इतनी मुख़्तसर भी नहीं
शाहिद कमाल