ग़मों की ओढ़नी ओढ़े खड़े हैं ज़िंदगानी में
निकाले पीड़ा का घूँघट सदा अपनी कहानी में
सुकूँ कतरा नहीं बरसा सदा तड़पे सदा तरसे
उसी बद-हाल मंज़र ने लगा दी आग पानी में
मिरे कंधे मिरे यारों मिरे सदमों ने तोड़े हैं
उठाए फिर रहे थे बोझ ग़म का शादमानी में
मुसाफ़िर हर कोई होता है इस राह-ए-मोहब्बत का
कभी हम भी थे दीवाने इसी दिलकश रवानी में
नहीं शिकवा अँधेरों से शिकायत है उजालों से
सदा ज़ख़्मों पे चमके हैं बहुत ही बद-गुमानी में
सुनाए 'सारथी' क्या दास्ताँ अपनी उदासी की
कहीं छलके न आँखों से लहू क़िस्सा-बयानी में

ग़ज़ल
ग़मों की ओढ़नी ओढ़े खड़े हैं ज़िंदगानी में
मोनिका शर्मा सारथी