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ग़म तो था फिर भी बे-शुमार न था | शाही शायरी
gham to tha phir bhi be-shumar na tha

ग़ज़ल

ग़म तो था फिर भी बे-शुमार न था

अशफ़ाक़ रहबर

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ग़म तो था फिर भी बे-शुमार न था
नेज़ा सीने के आर-पार न था

मेरे गिरने पे क्यूँ है इस्ति'जाब
मैं तो वैसे भी शहसवार न था

वो जो फिरता था ले के शेर की खाल
उस का मारा हुआ शिकार न था

कैसे रिश्ते हैं उस की मौत के बा'द
ख़ून ख़ुद उस का सोगवार न था

हम भी सैराब हो चुके होते
मतला-ए-बख़्त अब्र-बार न था

सख़्त-जानी रही बहाना है
तेरा ख़ंजर ही आब-दार न था

मैं लदा था चला वो चल न सका
उस पे हालाँकि कोई हार न था