ग़म तो था फिर भी बे-शुमार न था
नेज़ा सीने के आर-पार न था
मेरे गिरने पे क्यूँ है इस्ति'जाब
मैं तो वैसे भी शहसवार न था
वो जो फिरता था ले के शेर की खाल
उस का मारा हुआ शिकार न था
कैसे रिश्ते हैं उस की मौत के बा'द
ख़ून ख़ुद उस का सोगवार न था
हम भी सैराब हो चुके होते
मतला-ए-बख़्त अब्र-बार न था
सख़्त-जानी रही बहाना है
तेरा ख़ंजर ही आब-दार न था
मैं लदा था चला वो चल न सका
उस पे हालाँकि कोई हार न था
ग़ज़ल
ग़म तो था फिर भी बे-शुमार न था
अशफ़ाक़ रहबर