ग़म से घबरा के क़यामत का तलबगार न बन
इतना मायूस-ए-करम ऐ दिल-ए-बीमार न बन
ख़्वाहिश-ए-दीद है तो ताब-ए-नज़र पैदा कर
वर्ना बेहतर है यही तालिब-ए-दीदार न बन
मुझे मंज़ूर है ये बर्क़ गिरा दे मुझ पर
मुझ से बेगाना मगर ऐ निगह-ए-यार न बन
दामन-ए-हाल को भी फूलों से भर दे नादाँ
सिर्फ़ मुस्तक़बिल-ए-रंगीं का तरफ़-दार न बन
बिल-यक़ीं मंज़िल-ए-मक़्सूद मिलेगी मुझ को
ना-उमीदी तू मिरी राह की दीवार न बुन
है रिहाई की तमन्ना तो गिरा दे दीवार
क़ैद-ए-ज़़िंदाँ में रहीन-ए-ग़म-ए-दीवार न बन
लाएक़-ए-हम्द है वो जिस की ज़िया है उन में
कम-नज़र चाँद सितारों का परस्तार न बन
मैं ख़तावार हूँ तो मुझ को मिटा दे सय्याद
सारे गुलशन के लिए बाइस-ए-आज़ार न बन
ऐसे इक़दाम का हासिल है यहाँ नाकामी
बज़्म-ए-साक़ी है ये 'कशफ़ी' यहाँ ख़ुद्दार न बन

ग़ज़ल
ग़म से घबरा के क़यामत का तलबगार न बन
कशफ़ी लखनवी