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ग़म में हर लब पे वही आह-ओ-बुका आती है | शाही शायरी
gham mein har lab pe wahi aah-o-buka aati hai

ग़ज़ल

ग़म में हर लब पे वही आह-ओ-बुका आती है

शौकत थानवी

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ग़म में हर लब पे वही आह-ओ-बुका आती है
मुख़्तलिफ़ साज़ हैं और एक सदा आती है

हो के ज़िंदाँ से जो गुलशन की हवा आती है
और दीवानों को दीवाना बना आती है

पस्त होती है जहाँ अहल-ए-दिला की हिम्मत
उस जगह काम ग़रीबों की दुआ आती है

मुझ से हर हाल में अच्छा है तसव्वुर मेरा
कम से कम आप की तस्वीर बना आती है

जब जफ़ाओं से पड़ा काम तो सब भूल गए
नाज़ था हम को कि हम को भी वफ़ा आती है

दिल है या साज़-ए-शिकस्ता है न जाने क्या है
एक से एक ख़ुश-आइंद सदा आती है

फ़ुर्सत इतनी नहीं मिलती कि कभी ग़ौर करें
वर्ना हर दर्द की ख़ुद हम को दवा आती है

जाम-ए-सरशार इधर है मैं हूँ तौबा है उधर
और इधर का'बे से इक मस्त घटा आती है

दिन निकलता है तो आती है मुझे रात की याद
रात आती है तो इक ताज़ा बला आती है

इस तरफ़ पा-ए-शिकस्ता में नहीं ताब-ए-सफ़र
उस तरफ़ कान में आवाज़-ए-दरा आती है

दिल में जो आग भड़कती है बुझाती है वो आँख
ख़ूब दोनों को लगा और बुझा आती है

आप गुमराह है 'शौकत' मिरी वहशत लेकिन
रास्ता भूलने वालों को बता आती है