ग़म में अहद-ए-शबाब जाता है
आसमाँ ख़ाक में मिलाता है
कौन गुल बहर-ए-सैर आता है
बाग़ फूला नहीं समाता है
अर्श पर भी ग़ुबार जाता है
दिल जो वहशत में ख़ाक उड़ाता है
जान देता है सब्ज़ा-ए-ख़त पर
ख़िज़्र हर रोज़ ज़हर खाता है
तेग़-ए-क़ातिल जो हो गई बे-आब
ज़ख़्म पानी मगर चुराता है
ज़िंदे मरते हैं मुर्दे जीते हैं
जब वो रश्क-ए-मसीह गाता है
सहर-ए-शाम-ए-वस्ल है शब-गोर
मौत आती है यार जाता है
अच्छी पड़ती है जब कोई तलवार
दहन-ए-ज़ख़्म मुस्कुराता है
ख़ून-ए-उश्शाक़ का उठा बीड़ा
बे-सबब कब वो पान खाता है
जिगर-ए-संग हो जहाँ पानी
वो वहाँ मुझ को आज़माता है
तू जो गुल है तो मैं भी शबनम हूँ
मुझे हँसना तिरा रुलाता है
ख़ुश ये मरने से हूँ मिरा लाशा
गोर में भी नहीं समाता है
लाला-ए-कोह से हुआ साबित
ख़ून-ए-फ़रियाद जोश खाता है
लाख तक़लीद कीजिए ऐ 'अर्श'
पर कब अंदाज़-ए-'मीर' आता है
ग़ज़ल
ग़म में अहद-ए-शबाब जाता है
मीर कल्लू अर्श