ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया
वो मिरा मोहसिन मुझे पत्थर से हीरा कर गया
घूरता था मैं ख़ला में तो सजी थीं महफ़िलें
मेरा आँखों का झपकना मुझ को तन्हा कर गया
हर तरफ़ उड़ने लगा तारीक सायों का ग़ुबार
शाम का झोंका चमकता शहर मैला कर गया
चाट ली किरनों ने मेरे जिस्म की सारी मिठास
मैं समुंदर था वो सूरज मुझ को सहरा कर गया
एक लम्हे में भरे बाज़ार सोने हो गए
एक चेहरा सब पुराने ज़ख़्म ताज़ा कर गया
मैं उसी के राब्ते में जिस तरह मल्बूस था
यूँ वो दामन खींच कर मुझ को बरहना कर गया
रात भर हम रौशनी की आस में जागे 'अदीम'
और दिन आया तो आँखों में अँधेरा कर गया
ग़ज़ल
ग़म के हर इक रंग से मुझ को शनासा कर गया
अदीम हाशमी